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यस्मा॑ अ॒न्ये दश॒ प्रति॒ धुरं॒ वह॑न्ति॒ वह्न॑यः । अस्तं॒ वयो॒ न तुग्र्य॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yasmā anye daśa prati dhuraṁ vahanti vahnayaḥ | astaṁ vayo na tugryam ||

पद पाठ

यस्मै॑ । अ॒न्ये । दश॑ । प्रति॑ । धुर॑म् । वह॑न्ति । वह्न॑यः । अस्तम् । वयः॑ । न । तुग्र्य॑म् ॥ ८.३.२३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:3» मन्त्र:23 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:29» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:23


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शिव शंकर शर्मा

फिर भी अध्यात्मवर्णन का आरम्भ करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - पुनः इससे मन का ही वर्णन करते हैं। यथा−(यस्मै) जिस रोहित नाम मन की सहायता के लिये (धुरम्+प्रति) इस शरीररूप धुर् में (अन्ये+दश) अन्य कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रियरूप दशसंख्याक (वह्नयः) वाहक अश्व स्थित होकर (वहन्ति) इस शरीर को वहन कर रहे हैं। यहाँ दृष्टान्त देते हैं (न) जैसे (वयः) अतिगमनशील घोड़े (तुग्र्यम्) राजा को (अस्तम्) गृह को ले जाते हैं ॥२३॥
भावार्थभाषाः - इस शरीर में जो दश इन्द्रियें स्थापित की गई हैं, वे मन के साहाय्य के लिये हैं। उनसे कैसे और कौन कार्य लेने चाहियें, इसको विचारो और उनको योगद्वारा वश में करके कार्य्य में लगाओ ॥२३॥•
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्मै) जिस मुझको (अन्ये, दश, वह्नयः) अन्य दश वहनकर्ता इन्द्रिय नामक (वयः) जैसे सूर्य्यकिरण (तुग्र्यं) जल-परमाणुओं को (अस्तं, न) सूर्य्य की ओर वहन करती हैं, इसी प्रकार (धुरं) शरीररूप धुर को (प्रतिवहन्ति) गन्तव्य देश के प्रति वहन करती हैं ॥२३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में इन्द्रिय तथा इन्द्रियवृत्तियों का वर्णन है कि जिस पुरुष के इन्द्रिय संस्कृत हैं, उसकी इन्द्रियवृत्तियें साध्वी तथा संस्कृत होती हैं, इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह मनस्वी बनकर इन्द्रियवृत्तियों को सदैव अपने स्वाधीन रक्खे। इसी भाव को कठ० में इस प्रकार वर्णन किया है कि “सदश्वा इव सारथेः”=जिस प्रकार सारथी के संस्कृत और सुचालित घोड़े वशीभूत होते हैं, इसी प्रकार इन्द्रियसंयमी पुरुष के इन्द्रिय वशीभूत होते हैं ॥२३॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनरध्यात्मवर्णनमारभते।

पदार्थान्वयभाषाः - पुनरपि मन एव विशिष्यते। यथा−यस्मै=रोहितनाम्ने मनसे=मनसः साहाय्यार्थम्। धुरं प्रति=शरीररूपां धुरं प्रति। अन्ये=इतरे कर्मज्ञानेन्द्रियस्वरूपाः। दश=दशसंख्याकाः। वह्नयः=वोढारः। वहन्ति। अत्र दृष्टान्तः। न=यथा। वयः=गन्तारोऽश्वाः। तुग्र्यम्=राजानम्। अस्तम्=गृहं वहन्ति। तद्वत्। अस्यते क्षिप्यते वस्तुजातं तस्मिन्निति अस्तं गृहम्। तुग्र्य उग्रो भवति। दण्डधारित्वाद् राज्ञ उग्रत्वम् ॥२३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्मै) यं माम् (अन्ये, दश, वह्नयः) अन्ये दशसंख्याका वह्नयो वोढार इन्द्रियाख्याः (वयः) सूर्यरश्मयः (तुग्र्यम्) जलपरमाणुं (अस्तं, न) सूर्यं प्रतीव (धुरं, प्रतिवहन्ति) शरीररूपं धुरं प्रतिवहन्ति ॥२३॥